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चमड़ी मिली खुदा के घर सेदमड़ी नहीं समाज दे सकागजभर भी न वसन ढँकने कोनिर्दय उभरी लाज दे सका
मुखड़ा सटक गया घुटनों मेंअटक कंठ में प्राण रह गयेसिकुड़ गया तन जैसे मन मेंसिकुड़े सब अरमान रह गये
मिली आग लेकिन न भाग्य-साजलने को जुट पाया इन्जनदाँतों के मिस प्रकट हो गयामेरा कठिन शिशिर का क्रन्दन
किन्तु अचानक लगा कि यह,संसार बड़ा दिलदार हो गयाजीने पर दुत्कार मिली थीमरने पर उपकार हो गया
श्वेत माँग-सी विधवा की,चदरी कोई इन्सान दे गयाऔर दूसरा बिन माँगे हीढेर लकड़ियाँ दान दे गया
वस्त्र मिल गया, ठंड मिट गयी,धन्य हुआ मानव का चोलाकफन फाड़कर मुर्दा बोला ।
कहते मरे रहीम न लेकिन,पेट-पीठ मिल एक हो सकेनहीं अश्रु से आज तलक हम,अमिट क्षुधा का दाग धो सके
खाने को कुछ मिला नहीं सो,खाने को ग़म मिले हज़ारोंश्री-सम्पन्न नगर ग्रामों मेंभूखे-बेदम मिले हज़ारों
दाने-दाने पर पाने वालेका सुनता नाम लिखा हैकिन्तु देखता हूँ इन पर,ऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है
दास मलूका से पूछो क्या,'सबके दाता राम' लिखा है?या कि गरीबों की खातिर,भूखों मरना अन्जाम लिखा है?
किन्तु अचानक लगा कि यह,संसार बड़ा दिलदार हो गयाजीने पर दुत्कार मिली थीमरने पर उपकार हो गया ।
जुटा-जुटा कर रेजगारियाँ,भोज मनाने बन्धु चल पड़ेजहाँ न कल थी बूँद दीखती,वहाँ उमड़ते सिन्धु चल पड़े
निर्धन के घर हाथ सुखाते,नहीं किसी का अन्तर डोलाकफन फाड़कर मुर्दा बोला ।
घरवालों से, आस-पास से,मैंने केवल दो कण माँगाकिन्तु मिला कुछ नहीं औरमैं बे-पानी ही मरा अभागा
जीते-जी तो नल के जल से,भी अभिषेक किया न किसी नेरहा अपेक्षित, सदा निरादृतकुछ भी ध्यान दिया न किसी ने
बाप तरसता रहा कि बेटा,श्रद्धा से दो घूँट पिला देस्नेह-लता जो सूख रही हैज़रा प्यार से उसे जिला दे
कहाँ श्रवण? युग के दशरथ ने,एक-एक को मार गिरायामन-मृग भोला रहा भटकता,निकली सब कुछ लू की माया
किन्तु अचानक लगा कि यह,घर-बार बड़ा दिलदार हो गयाजीने पर दुत्कार मिली थी,मरने पर उपकार हो गया
आश्चर्य वे बेटे देते,पूर्व-पुरूष को नियमित तर्पणनमक-तेल रोटी क्या देना,कर न सके जो आत्म-समर्पण !
जाऊँ कहाँ, न जगह नरक में,और स्वर्ग के द्वार न खोला !
कफन फाड़कर मुर्दा बोला ।

कुं विजेंद्र शेखावत
सिंहासन

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