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भौम बिहूणा भौमियां,

कार नहीं बेकार |

भूख भूपाला भटकता,

रोजी बिन रुजगार ||१



जमीं गई जमीयत गई,

ठौड़ ठाकरी ठाण |

ठिकाणां ठिकाणे लगा,

रजवाडी मौखाण ||२





आन्दोलन आकर अड्या,

पकड्या पांच हजार |

जैपर अलवर जोधपुर,

दिया जेल में डार ||३



रापट रोळी राज में,

पूछ न दाद पुकार |

ठौड़ ठौड़ थाणां थरप,

सुणण लागा जैकार ||४





रुल सभा जागीर बिल,

पेस हुवो जिण ठाण |

दस सत्याग्रही बिल समै,

कपि जिम लिवि कूदांण ||५



हाक वाक् होगी हवा,

सट पटाय मिम्बराण |

लंक गढ़ी कपिराण जिम,

थर थर लागा कम्पाण ||६





सीट छोड़ न्हाटा सदसे,

चैयर टेबलां हेट |

सत्याग्रही स्व सेवकां,

झेल सक्या नी फेंट ||७



कथित सैनानी सुतंत्र्ता,

जंग आजादी जोद |

मिटा मरदसी मांडणा,

मांडाणी मन मोद ||8





जब्ती बिल जागीर रो,

विधान सभा में पेस |

दस सिर वाली लंक जिम,

कूद पड्या कपि भेस ||९



कमर बाँध भेलो हुवौ,

सगलो क्षत्र समाज |

गति छछूंदर नागसी,

दुविधा विकट दराज ||१०





कुरुखेत पारथ जिसी,

बणी स्थिति आंण |

मोह छोह बांधव सगां,

करतव लियो पिछांण ||११



श्रीनाथ क्रपा करी,

करतब ग्यान करांण |

सत मत पथ राखे मती,

भय नह मन में आंण ||१२





छबि बिगाड़न छिपकला,

चमचा चाटुकार |

मुलक कुटिल दिल मानवां,

दूर रखै सुभकार ||१३



सात दिवस चिंतण सिविर,

सारणेस सिव थांन |

आन्दोलन रचना रची,

सगळी रो मो भान ||१४





आन्दोलन प्रभाव फल,

हणू सवाई देव |

सरविस सरकारी लगा,

जाणू सारो भेव ||१५



दांतै हुडील जावली,

बाढ़मेर निम्बहेर |

राजपुरै हरजी मुणा,

साथ सवाई फेर ||१६





आँदोलण चौपासणी,

भू-स्वामी सह बात |

भगतपुरै सौभागसी,

सारी विध रिय साथ ||१७



मुरब्बा बावीस संघनै,

समझौते सरकार |

दियै जिकण रै कारणे,

संघरी व्ही दो फार ||१८





खिंदासर उम्मीदसिं,

पूंख नेवरी बाग़ |

जाणे सारा रहसनै,

भगतपुरै सौभाग ||१९



कारण जो महामहिमकथै,

आन्दोलन आधार |

असैम्बली री मिनिट्स में,

बांच करै निरधार ||२०

विजेंद्र शेखावत
सिंहासन



    • ज्ञान दर्पण पर आपने " मित्र के विरह में कवि और विरह के दोहे" में पढ़ा कि अपने मित्र बाघजी राठौड़ की मौत का दुःख कविराज आसाजी बारहट सहन नहीं कर सके और वे उनके विरह में एक पागल की से हो गए वे जिधर भी देखते उन्हें बाघजी की सूरत ही नजर आती और वे बाघा बाघा चिल्लाते हुए उनके विरह में हो दोहे व कविताएँ बोलते रहे |
      एक दिन कविराज आसाजी के बारे में अमरकोट के राणा जी ने सुना तो उन्होंने कहा कि कविराज को मैं अपने पास रखूँगा और उनका इतना ख्याल रखूँगा कि वे बाघजी को भूल जायेंगे | और आसाजी को राणा ने अमरकोट बुलवा लिया |
      एक दिन राणा जी ने कविराज आसाजी की परीक्षा लेने के लिए सोचा कि क्यों न कविराज को लालच दिया जाय फिर देखते है वे अपने मित्र को भुला पते है या नहीं | यही सोचकर एक दिन राणा जी ने कहा कि आपके दोस्त बाघजी से मेरा पुराना बैर है और मैं चाहता हूँ कि आप कम से कम एक रात्री उनका नाम नहीं लें , राणा जी ने कविराज से कहा कि वे सिर्फ एक रात्री बाघजी का नाम न लें तो मैं आपको रात्रि के चारों प्रहरों के हिसाब से चार लाख रूपये इनाम दूंगा कह कर राणा वहां उपस्थित सिपाहियों को इशारा करके चले गए |
      राणा की बात सुनकर कविराज के पुत्र ने उन्हें खूब समझाया कि हे पिता श्री ! कम से कम एक रात तो आप मेरे ही लिए अपने मित्र बाघजी को भूल जाये और एक रात्रि उनका नाम लिए बिना काट दें | ताकि मैं इन मिलने वाले चार लाख रुपयों से अपना जीवन ढंग से काट लूँ आखिर एक ही रात की बात है फिर भले आप रोजाना अपने मित्र बाघा को याद करते रहना | कवि आसाजी ने अपने पुत्र की विशेष इच्छा पर हृदय पर पत्थर रखकर कुछ रात्री निकाली | पर सच्चे प्रेमी जब बिछुड़ते है तो उन्हें नींद आना भी तो कठिन है | एक प्रहर रात के बीतते ही अपने मित्र बाघजी की यादें शूल की भांति कवि आसाजी के हृदय को भेदने लगी | और इतनी देर से दबा हुआ भावों का प्रवाह पुन: तीव्र हो गया और वे आखिर बोल पड़े -
      बाघा आव वलेह, धर कोटडै तूं धणी |
      जासी फूल झड़ेह, वास न जासी बाघरी ||
      हे कोटडे के स्वामी बाघजी ! एक बार फिर आ जावो फूल झड़ जाते है लेकिन उनकी सुगंध नहीं जाती (तुम्हारी कीर्ति भुलाई नहीं जा सकती)|
      'बाघा आव वलेह' कितना मीठा निमंत्रण है | 'वास न जासी बाघरी' वास्तव में ठीक है कि प्रेमी की स्मृति प्रेमी की मृत्यु होने पर मिट थोड़े ही सकती है | वह तो उल्टी और तीव्र होगी | कवि ने अनुभूति का पुट देकर जीवन के इस महान सत्य को कितने थोड़े शब्दों में किस कौशल से व्यक्त कर किया है |
      इस दोहे को सुनकर सिपाही ने पूछा कि आसाजी जाग रहे हो या नींद में कह रहे हो | कवि ने कहा - मित्र बाघजी बिना नींद ही नहीं आती और एक नि:श्वास खींचते हुए कहा-
      ठोड़ ठोड़ पग दौड़ करस्यां पेटज कारणे |
      रात दिवस राठौड़ वीसरसूं नह बाघ नै ||
      पेट के लिए जगह जगह भटकता फिरूंगा लेकिन मित्र बाघजी को कभी भी न फूल सकूँगा |
      सिपाही ने कहा - अपनी मस्ती में अपने पुत्र पर हृदय-हीनता क्यों करते है ? दो लाख रूपये तो आपने बाघजी के लिए दो दोहे बोलकर खो दिए अब भी समय है दो लाख तो बचाइये | सिपाही की बात सुनकर कविराज आसाजी गंभीर हो चुप हो गए |
      लेकिन दबी हुई प्रेमी की विकल हूक दबी कैसे रह सकती थी | तीसरे प्रहर का प्रभात होते मुर्गा बोला | प्रभात के शांत वातावरण में हृदय के समस्त वेग से मुर्गे के उस दुखी क्रन्दन में क्या भाव होते है यह एक विरही ही बता सकता है | कविराज के हृदय का प्रसुप्त प्रवाह विकल हुआ और बह उठा -
      कूकड़ला क्यों कूकियो, ढळती मांझल रात |
      (कै) तनै बिल्ली संतायियो, (कै) बाघा तणों विराग ||
      हे मुर्गे ! तू इस बीतती हुई निस्तब्ध रात्री में क्योंकर क्रन्दन कर उठा ? क्या तुझे बिल्ली ने सताया है अथवा तुझे भी मेरी ही भांति बाघजी का विरह सता रहा है ?
      कवि आसाजी मुर्गे के चिल्लाने में अपने दर्द की हुक पाते है '(कै) तनै बिल्ली संतायियो, (कै) बाघा तणों विराग ' कितना भोला प्रश्न है | इस प्रश्न में एक कसक है | कहते है कसक का स्पष्टीकरण ही काव्य है | इस दोहे के समान कसक का इतना अच्छा स्पष्टीकरण और कहाँ पाया जा सकता है |
      सिपाही ने सोचा,इस समय याद दिला दिया तो कविराज का बचा हुआ एक लाख रुपया भी चला जायेगा | अत: प्रात:काल से कुछ पहले सिपाही ने कविराज से कहा - अब तो केवल आध घड़ी ही बची है सो धीरज रखिये इतने महाराणा भी आ जायेंगे और बचा हुआ एक लाख रुपया तो मिल जायेगा | कविराज आसाजी का प्रेम इसी समय माया पर विजय स्थापना कर गर्व से खड़ा हुआ | मन ही मन अपनी कमजोरी पर रोष करते हुए सिपाही से कहा -
      थडै मसांण थयांह , आतम पद पूगां अलख |
      (म्हारा) गंगा हाड़ गयांह ,(हूँ) वीसरसूं जद बाघ नै ||
      मैं मित्र बाघजी को तभी भूल सकूँगा जब मेरा श्मशान भी बाघजी के स्मारक के पास ही बना दिया जावेगा,मेरी आत्मा परम पद को प्राप्त हो जाएगी और मेरी हड्डियाँ गंगा में प्रवाहित कर दी जाएगी |
      सिपाही ने कहा - गजब कर दिया | आपने चारों लाख रूपये खो दिए | इतने में महाराणा भी आ गए और पूछा कि क्या बारहट जी चारों लाख रूपये खो चुके ? ऐसे प्रश्न का भावुक कवि ने उतर दिया -
      मड़ा मसांण गयांह, अलल ले पोंछ्या अलख |
      (म्मारा) गंगा हाड़ गयांह (हूँ) तोय न भूलूं बाघ नै ||
      मेरा शव श्मशान भूमि को पहुँच जावेगा ,मेरी आत्मा स्वर्ग दूत ले जावेंगे और मेरी हड्डियाँ गंगा में बहा दी जावेगी; तब भी मैं बाघजी को नहीं भूल सकता |
      कवि ने इस दोहे में अपनी प्रतिभा और अपने व्यक्तित्व की पराकाष्ठा कर दी | भावुकता को चरम सीमा तक पहुंचा दिया "(हूँ) तोय न भूलूं बाघ नै" एक तीर सा प्रभाव करता है | यह वह काव्य है जिसे सुनकर 'तन मन धुनत शरीर' की उक्ति ठीक बैठती है | उस धनुर्धर के तीर से क्या और कवि की उक्ति से क्या,जो लगकर हृदय को तिलमिला न दे |
      चींघण चालवियांह, खीरां बाळ खखेरियां |
      राणा राख यथांह , वीसरसूं न बाघ नै ||
      चींघण से (मुर्दा जलाते समय खोपड़ी तोड़ने वाली लकड़ी से) जब कपाल क्रिया कर दी जावेगी और अंगारों में मुझे जलाकर उथलाया जावेगा तब भी मैं बाघे को नहीं भूल सकूँगा | इसलिए हे राणा ! अपनी थैलियों को अपने पास रखो |
      प्रेमी की प्रेम स्मृति के आगे रुपयों का लोभ नहीं टिक सका | इसीलिए तो कहा है "राणा राख यथांह" | यहाँ राणा को भी उपेक्षा भरी दृष्टि से देखा गया है | अपनी थैलियाँ अपने पास रखो, मुझे नहीं चाहिए - मैं बाघे को नहीं भूल सकता | कितनी आहें भरी हुई है इस कथन में |
      और उस ज़माने में (हुमायूं के समकालीन) चार लाख रूपये का लालच भी उन कविराज आसाजी बारहट को अपने मित्र बाघजी की स्मृति को भुला न सका |
      कुं. विजेंद्र शेखावत
      सिंहासन
    • जीवन के आखिरी लम्हों को समेटता एक मानव
      आज के युवा मानव का हास्य पात्र बन गया
      कल वो उस युवा की जगह था मगर आज वो
      युवा उसकी "उस" जगह ... ये कैसा जीवन ?
      जिस बचपन को वो अपनी लाठी समझ बैठा
      वो उसकी लाठी चुराने को खेल समझ बैठा .. ये कैसा खेल ?
      बचपन और युवा के बीच में फंसा आज का बुजर्ग
      बाज के पंजे में फसां एक पक्षी सा निरीह... ये कैसा दौर ?
      ए युवा ! बुजर्ग से जीवन का अनुभव सीख
      उसका तजुर्बा तेरे जीवन को जीवन बना देगा ..
      नहीं तो कल......
      तू उसकी जगह ..
      और ये बचपन...
      तेरी जगह लेगा ...
      और तब...
      एक और जीवन चक्र ...
      एक इंसान को इंसान बन ने महरूम कर देगा ...


      विजेंद्र शेखावत
      सिंहासन
    • एक स्त्री की मान रक्षा के लिए शेखाजी ने झुन्थर के कोलराज गौड़ का सर काट कर अपने अमरसर के गढ़ के सदर द्वार पर टंगवा दिया,ऐसा करने का उनका उद्देश्य उदंड व आततायी लोगों में भय पैदा करना था हालांकि यह कृत्य वीर धर्म के खिलाफ था शेखा जी के उक्त कार्य की गौड़ा वाटी में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और गौड़ राजपूतों ने इसे अपना जातीय अपमान समझा,अनेक गौड़ योद्धाओ ने अपने सरदार का कटा सर लाने का साहसिक प्रयत्न किया लेकिन वे सफल नही हुए और गौंडो व शेखाजी के बीच इसी बात पर ५ साल तक खूनी संघर्ष चलता रहा आख़िर जातीय अपमान से क्षुब्ध गौड़ राजपूतों ने अपनी समस्त शक्ति इक्कट्ठी कर घाटवा नामक स्थान पर युद्ध के लिए राव शेखा जी को सीधे शब्दों में रण निमंत्रण भेजा

      गौड़ बुलावे घाटवे,चढ़ आवो शेखा |

      लस्कर थारा मारणा,देखण का अभलेखा ||

      रण निमंत्रण पाकर शेखा जी जेसा वीर चुप केसे रह सकता था और बिखरी सेना को एकत्रित करने की प्रतीक्षा किए बिना ही शेखा जी अपनी थोडी सी सेना के साथ घाटवा पर चढाई के लिए चल दिए और जीणमाता के ओरण में अपने युद्ध सञ्चालन का केन्द्र बना घाटवा की और बढे ,घाटवा सेव कुछ दूर खुटिया तालाब (खोरंडी के पास )शेखा जी का गौडों से सामना हुवा ,मारोठ के राव रिडमल जी ने गौडों का नेत्रत्व करते हुए शेखा जी पर तीरों की वर्षा कर भयंकर युद्ध किया उनके तीन घटक तीर राव शेखा जी के लगे व शेखा जी के हाथों उनका घोड़ा मारा गया ,इस युद्ध में शेखा जी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा जी कोलराज के पुत्र मूलराज गौड़ के हाथों मारे गए और इसके तुंरत बाद मूलराज शेखा जी के एक ही प्रहार से मारा गया | घोड़ा बदल कर रिडमल जी पुनः राव शेखा जी के समक्ष युद्ध के लिए खड़े हो गए ,गौड़ वीरों में जोश की कोई कमी नही थी लेकिन उनके नामी सरदारों व वीरों के मारे जाने से सूर्यास्त से पहले ही उनके पैर उखड़ गए और वे घाटवा के तरफ भागे जो उनकी रणनीति का हिस्सा था वे घाटवा में मोर्चा बाँध कर लड़ना चाहते थे ,लेकिन उनसे पहले शेखा जी पुत्र पूरण जी कुछ सैनिकों के साथ घाटवा पर कब्जा कर चुके थे |

      खुटिया तालाब के युद्ध से भाग कर घाटवा में मोर्चा लेने वाले गौडों ने जब घाटवा के पास पहुँच कर घाटवा से धुंवा उठता देखा तो उनके हौसले पस्त हो गए और वे घाटवा के दक्षिण में स्थित पहाडों में भाग कर छिप गए शेखा जी के पुत्र पूरण जी घाटवा में हुए युद्ध के दौरान अधिक घायल होने के कारण वीर गति को प्राप्त हो गए | घायल शेखा जी ने शत्रु से घिरे पहाडों के बीच रात्रि विश्राम लेना बुधिसम्मत नही समझ अपने जीणमाता के ओरण में स्तिथ सैनिक शिविर में लोट आए इसी समय उनके छोटे पुत्र रायमल जी भी नए सेन्यबल के साथ जीणमाता स्थित सेन्य शिविर में पहुँच चुके थे ,गौड़ शेखा जी की थकी सेना पर रात्रि आक्रमण के बारे में सोच रहे थे लेकिन नए सेन्य बल के साथ रायमल जी पहुँचने की खबर के बाद वे हमला करने का साहस नही जुटा सके |

      युद्ध में लगे घावों से घायल शेखा जी को अपनी मर्त्यु का आभास हो चुका था सो अपने छोटे पुत्र रायमल जी को अपनी ढाल व तलवार सोंप कर उन्होंने अपने उपस्थित राजपूत व पठान सरदारों के सामने रायमल जी को अपना उतराधिकारी घोषित कर अपनी कमर खोली ,और उसी क्षण घावों से क्षत विक्षत उस सिंह पुरूष ने नर देह त्याग वीरों के धाम स्वर्गलोक को प्रयाण किया ,जीणमाता के पास रलावता गावं से दक्षिण में आधा मील दूर उनका दाह संस्कार किया गया जहाँ उनके स्मारक के रूप में खड़ी छतरी उनकी गर्वीली कहानी की याद दिलाती है |

      घाटवा का युद्ध सं.१५४५ बैशाख शुक्ला त्रतीय के दिन लड़ा गया था और उसी दिन विजय के बाद शेखा जी वीर गति को प्राप्त हुए | शेखा जी की म्रत्यु का संयुक्त कछवाह शक्ति द्वारा बदला लेने के डर से मारोठ के राव रिडमल जी गोड़ ने रायमल जी के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर और 51 गावं झुन्थर सहित रायमल जी को देकर पिछले पॉँच साल से हो रहे खुनी संघर्ष को रिश्तेदारी में बदल कर विवाद समाप्त किया |

      संदर्भ - राव शेखा,शेखावाटी प्रदेश का राजनैतिक इतिहास
      मुझे गर्व है की में ऐसे राव शेखा जी का वंशज हूँ

      विजेंद्र शेखावत
      सिंहासन