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वृक्ष हो भले खड़े, हो घने हो बड़े, एक पत छाव की |
मांग मत, मांग मत, मांग मत ||
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ |||
तू न थकेगा कभी, तू न थमेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी |
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ ||
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ |||
ये महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु स्वेद रक्त से |
लथपथ, लथपथ, लथपथ ||
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ |||


हिन्दू विवाह भोग विलास का मात्र साधन नहीं, अपितु यह एक धार्मिक संस्कार है| संस्कार से अन्तःशुद्धि होती है और अन्तःकरण में तत्वज्ञान एवं भगवत्प्रेम का प्रादुर्भाव होता है जो जीवन का चरम एवं परम पुरुषार्थ है| काम वासना की चिकित्सा के लिए विवाह बड़ी अच्छी दवा है, किन्तु यह कड़वी है, जिसे यदि बहुत संभलकर उसका उपयोग न किया जाय तो बड़ा भयावह भी है| वास्तव में विवाह करने पर भी यदि जीवन असंयम में ही बीते तो विवाह का सारा उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाता है| अतएव विवाहोपरांत संयमित जीवान का उपभोग ही मनुष्य को सबल एवं सुदृढ़ बनाता है| विवाह मन के भटकाव को रोकता है तथा संयमित जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है| मनुष्य के ऊपर देव ऋण, ऋषि ऋण, एवं पित्री ऋण होते हैं, जिससे मनुष्य को अपने जीवन काल में परिमार्जन कर लेना चाहिए| यज्ञ-यज्ञादि के अनुष्ठान से देव ऋण का, स्वाध्याय से ऋषि ऋण का और विवाह करके पितरों के श्राद्ध तर्पण योग्य, धार्मिक एवं सदाचारी पुत्र का उत्पन्न करने से पितर ऋण का निवारण हो जाता है| इस प्रकार पितरों की सेवा तथा सधर्मपालन की परम्परा सुरक्षित रखने के लिए योग्य संतान उत्पन्न करना विवाह संस्कार का दूसरा उद्देश्य है|पहला संयम और दूसरा परमार्थ साधन- ये दोनों ही उद्देश्य भोग से अन्यत्र ले जाने वाले हैं| विवाह को कहीं भी मात्र भोग का साधन नहीं माना गया है| विवाह के पहले मनुष्य केवल अपने व्यक्तित्व की ही चिंता करता है, किन्तु विवाहोपरांत अपनी चिंता छोड़कर पत्नी,पुत्र, परिवार, कुटुंब, सम्बन्धी,समाज और देश के प्रति चिंतनीय हो जाता है| समस्त वसुधा को ही कुटुंब समझकर वह राग-द्वेष से रहित हो जाता है| अतः विवाह आध्यात्मिक विकास का साधन है| विवाह का अंतिम लक्ष्य भगवत प्राप्ति या मोक्ष है| पुरुष अपना सम्पूर्ण प्रेम पत्नी के प्रति प्रवाहित करके केवल उसी का होकर रह जाता है| उसीप्रकार साध्वी स्त्रियाँ पति के प्रति समर्पित हो जाती है तथा अपना सबकुछ पति को अर्पित कर देती है| सती साध्वी स्त्रियाँ अपने पति में परमेश्वर का वास समझकर कृतार्थ हो जाती है| पुरुष पत्नी के साथ सद्धर्म पालन करने से अन्तःशुद्धि हो जाने पर भगवत्प्रेम का अधिकारी बन जाता है| इसलिए हिन्दू शाश्त्रों में स्त्री के सतीत्व की रक्षा पर विशेष बल दिया गया है| स्त्री की रक्षा करने वाला पुरुष अपने संतान की, अपने सदाचार की, कुल की,अपनी तथा अपने धर्म की रक्षा भी कर लेता है| इसी दृष्टि से बचपन में पिता, युवती अवस्था में पति औरव्रिद्धावास्था में पुत्रों पर स्त्री की रक्षा का भार सौंपा गया है| इसे स्त्री को परतंत्र बनाना नहीं समझना चाहिए| स्त्री द्वारा भिन्न पुरुषों के प्रति प्रेम वासना से उसका सतीत्व तो नष्ट होता ही है, वह वासना के पतन मार्ग पर धंसता चला जाता है तथा एकदिन वह मान-मर्यादा खोकर कई बिमारियों से ग्रसित होकर अपने जीवन को नष्ट कर देता है. पति पत्नी के मन में एक दुसरे के प्रति मंगल कामना भरी हो तो उच्च कोटि का संतान भी सदाचारी होता है| इसलिए हिन्दू विवाह संस्कार को सारे विश्व में सर्वश्रेष्ठ माना गया है| पश्चिमी देशों में स्त्रियाँ कई विवाह करती है तथा कितनी स्त्रियाँ अवैध पुरुष संसर्ग से कई खतरनाक बिमारियों का शिकार होकर कालकवलित हो जाती है| कई देशों में तो बिना विवाह के ही पुरुषों के संग जीवन बिताती है जिससे उसका जीवन नरकतुल्य एवं अंधकारमय हो जाता है| इसलिए कन्यायों का विवाह ससमय किया जाना श्रेयस्कर माना गया है| अधिक उम्र में शादी से जीवन असंयमित हो जाता है तथा अनैतिक संसर्ग को बढ़ाबा देता है| आजकल दहेज़ के लालच में पुरुषों की शादी समय पर नहीं हो पाती है, जिससे जीवन का महत्वपूर्ण समय यों ही बीत जाता है| दहेज़ के चक्कर में जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग निरुद्देश्य ही गुजर जाता है| समय पर विवाह नहीं होने से संताने नहीं हो पाती है, यदि होती है तो अयोग्य या कमजोर मानसिकता के साथ जन्म लेता है| माता-पिता समय पर शिक्षा-दीक्षा भी नहीं दे पाते हैं. उसीप्रकार युवतियों की शादी भी समय पर नहीं हो पाती है जिससे उसका मन परपुरुषों की ओर आकर्षित होता है तथा विवाह के पूर्व ही पुरुषों के संसर्ग में आती है. इसलिए समय पर हिन्दू विवाह सर्वोत्तम है| हिन्दू नारियों के साथ संसार की किसी जाति की स्त्रियों से तुलना नहीं की जा सकती है| इसका मुख्य कारण हिन्दू विवाह की पवित्रता है|