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कपड़े हो गए छोटे शर्म कहाँ से हो
अनाज हो गया रासायनिक स्वाद कहाँ से हो
भोजन हो गया डालडा ताकत कहाँ से हो
नेता हो गया कुर्सी का देशमुखी कहाँ से हो
फूल हो गए प्लास्टिक के खुशबू कहाँ से हो
चेहरा हुआ मेक अप का रूप कहाँ से हो
शिक्षक हुए ट्यूशन के विद्या कहाँ से हो
प्रोग्राम हुए चेनल के संस्कार कहाँ से हो
इंसान हुआ पैसों का दया कहाँ से हो
पानी हुआ केमिकल का गंगाजल कहाँ से हो
संत हुए  स्वार्थ के सत्संग कहाँ से हो
भक्त हुए स्वार्थ के भगवान् कहाँ से हो

कुं विजेन्द्र शेखावत
सिंहासन



माशुका को उसकी सहेली ने समझाया
‘आजकल खुल गयी है
सच बोलने वाली मशीन की दुकानें
उसमें ले जाकर अपने आशिक को आजमाओ।
कहीं बाद में शादी पछताना न पड़े
इसलिये चुपके से उसे वहां ले जाओ
उसके दिल में क्या है पता लगाओ।’

माशुका को आ गया ताव
भूल गयी इश्क का असली भाव
उसने आशिक को लेकर
सच बोलने वाली मशीन की दुकान के
सामने खड़ा कर दिया
और बोली
‘चलो अंदर
करो सच का सामना
फिर करना मेरी कामना
मशीन के सामने तुम बैठना
मैं बाहर टीवी पर देखूंगी
तुम सच्चे आशिक हो कि झूठे
पत लग जायेगा
सच की वजह से हमारा प्यार
मजबूत हो जायेगा
अब तुम अंदर जाओ।’
आशिक पहले घबड़ाया
फिर उसे भी ताव आया
और बोला
‘तुम्हारा और मेरा प्यार सच्चा है
पर फिर भी कहीं न कहीं कच्चा है
मैं अंदर जाकर सच का
सामना नहीं करूंगा
भले ही कुंआरा मरूंगा
मुझे सच बोलकर भला क्यों फंसना है
तुम मुझे छोड़ भी जाओ तो क्या फर्क पड़ेगा
मुझे दूसरी माशुकाओं से भी बचना है
कोई परवाह नहीं
तुम यहां सच सुनकर छोड़ जाओ
मुश्किल तब होगी जब
यह सब बातें दूसरों को जाकर तुम बताओ
बाकी माशुकाओं को पता चला तो
मुसीबत आ जायेगी
अभी तो एक ही जायेगी
बाद में कोई साथ नहीं आयेगी
मैं जा रहा हूं तुम्हें छोड़कर
इसलिये अब तुम माफ करो मुझे
अब तुम भी घर जाओ।’

कुं विजेन्द्र शेखावत 
सिंहासन