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हमारा देश आज एक ऎसे मार्ग पर चल पड़ा है जिसकी परिणति दु:ख के सिवाय कुछऔर नहीं है। हर व्यक्ति उस मार्ग पर चलकर गौरवान्वित महसूस करता है। उसकेपास कोई विकल्प भी नहीं है। हमारे सामने तथ्य हैं, सारे आंकड़े हैं, दर्शनहै, अनुभव हैं, किन्तु हमारा हंकार या लाचारी हमें इनमें से किसी कोस्वीकारने नहीं देती। समाज और परिवारों में अनावश्यक तनाव, वैमनस्य बढ़ताजा रहा है। यह नया रोग है अन्तरजातीय विवाह। इसको विकासवादी दृष्टिकोण कीपैदाइश माना तो जाता है, किन्तु जीना उनके बीच पड़ता है, जिनके दिलो-दिमागपर विकास पहुंचा ही नहीं है। प्रेम का रिश्ता कितनी सहजता से कट्टरता कीभेंट चढ़ जाता है, यह दृश्य देखकर कितने लोग खुश हो सकते हैं, यह भी मानवसमाज की त्रासदी ही है। क्योंकि भारत में यह पीड़ा या मुसीबतों का पहाड़मूल रूप में तो कन्या पक्ष के सिर टूटता है। पिछले सप्ताह कर्नाटक केधर्मस्थल गया था। एक ब्राह्मण लड़के की शादी अन्य जाति की कन्या से इसलिएकी गई कि ब्राह्मण जाति में उपयुक्त कन्या नहीं मिली। एक साल के बाद लड़केने लड़की को छोड़ दिया। वह लड़की न्याय की तलाश में आध्यात्मिक चेतना के
साथ सामाजिक जनजागरण में जुटे वीरेन्द्र हेगड़े के पास आई थी।

आजशिक्षा की आवश्यकता और भूत ने इस समस्या में "आग में घी" का काम किया है।भौतिकवाद, विकासवाद, स्वतंत्र पहचान, समानता की भ्रमित अवधारणा आदि नेव्यक्ति को शरीर के धरातल पर भी लाकर खड़ा कर दिया और अपने जीवन के फैसलेमां-बाप से छीनकर अपने हाथ में लेने शुरू कर दिए। अधिकांशत: माता-पिता उसकेमार्गदर्शक बनते नहीं जान पड़ते। चूंकि शिक्षा नौकरी के अतिरिक्त अधिकविकल्प नहीं देती, अत: परिवार का विघटन अनिवार्य हो गया।
दादा-दादी बिछुड़ गए। नई बहुएं सास-ससुर से भी मुक्त रहना चाहती हैं, तो बच्चों को संस्कारदेने से भी। स्कूल, होम वर्क के सिवाय बच्चों के लिए उसके पास न समय है, नही वह ज्ञान जिससे बच्चों का व्यक्तित्व निर्माण होता है। शिक्षा ने उसकेमन को भी समानता के भाव के नाम पर यहां तक प्रभावित कर दिया कि वह "मेरे घरमें लड़के-लड़की में कोई भेद नहीं है" का आलाप तार स्वर में गाती है। इससेकोई अधिक क्रूर मां धरती पर कौन होगी जो अपनी बेटी को स्त्री युक्त,मातृत्व, गर्भस्थ अवस्था आदि की भी जानकारी नहीं देती, क्योंकि बेटे को भीनहीं देती। बेटी को अंधेरे में धक्का देकर गौरवान्वित होती है। बेटे को तोपूरी उम्र मां-बाप की छत्रछाया में रहना है। मां बनना नहीं है। नए घर मेंजीना नहीं है।

इस जीवन-शिक्षा के अभाव में न जाने कितने संकट हो रहे
हैं। बच्चों को यथार्थ का ज्ञान नहीं होता और मित्र मण्डली के प्रवाह में
जीना सीख जाते हैं। उच्च शिक्षा की भी अवधारणा हमारे यहां नकारात्मक है।बच्चों का शिक्षा के साथ उतना जुड़ाव भी नहीं होता, जितना विदेशों में
दिखाई देता है। हां, शिक्षा के नाम पर अधिकांश बच्चों को उन्मुक्त वातावरण
रास आता है। फिर कुदरत की चाल। उम्र के साथ आवश्यकताएं भी बदलती हैं। भूखलगी है और भोजन भी उपलब्ध है, तब व्यक्ति कितना धैर्य रख सकता है? मां-बापबच्चों को भूखा रखते हैं। संस्कारों का सहारा नहीं देते। उधर टीवी, इंटरनेटइनको दोनों हाथों से शरीर सुख परोसने में लगे हैं। मन और आत्मा का तोधरातल ही भूल गए। शुद्ध पशुभाव रह गया। आहार-निद्रा-भय-मैथुन। और कुछ बचाही नहीं जीवन में।

भारत में कुछ सीमा तक जो संस्कृत समाज हैं, उनकोछोड़ दें। शेष अपने जीवन में इस पशुभाव पर नियंत्रण नहीं कर पाते। आज तोस्कूल में ही बच्चे 17-18 साल के हो जाते हैं। कक्षाओं से गायब रहते हैं।तब एक मोड़ जीवन में ऎसा आता है कि नियंत्रण भी छूट जाता है और विकल्प भी
खो जाते हैं। ये परिस्थितियां ही इस अन्तरजातीय विवाह की जननी बनती हैं।

अन्तरजातीयविवाह में यूं तो खराब कुछ नहीं दिखाई देता। जिसको दिखाई देगा वह दुनियाका सबसे बड़ा मूर्ख है। जब लड़का-लड़की दोनों राजी हैं, तब किसी कोअच्छा-बुरा क्यों लगना चाहिए? लेकिन जो कुछ नजारा अगले कुछ महीनों मेंसामने आता है, उसे देखकर मानवता पथरा जाती है। सारा समाज बीच में कूद पड़ताहै। अनेक बाध्यताएं, जिनमें धर्म परिवर्तन तक की भी हैं, अपने मुखौटेदिखा-दिखाकर चिढ़ाती हैं। कट्टरता, संकीर्णता और निर्दयता से सारा वातावरणकम्पित हो जाता है। लड़की के मां-बाप की स्थिति बयान करना सहज नहीं है।लड़की भी हजार गलतियां करने के बाद भारतीय है। मन में कुछ लज्जा का भावहोता है। जब किसी सभ्य परिवार की लड़की असभ्य परिवार से जुड़ जाती है, तबतो तांडव ही कुछ और होता है। किसी असभ्य परिवार की लड़की सभ्य और समृद्धपरिवार में चली जाती है, तब एक अलग तरह के अहंकार की टकराहट शुरू हो जाती
है। जिन जातियों में नाता होता है, वहां मन कोई मन्दिर नहीं रह जाता। लड़कीके दो-तीन तलाक हो जाएं तो लाखों का किराया वसूल लेते हैं मां-बाप। ऊपर सेकानून एकदम अंधा। परिस्थितियों की मार से दबे मां-बाप के लिए कानून भीभयावह जान पड़ता है।
आज न्यायालयों में विवाह विच्छेद के बढ़ते
आंकड़े इस देश के सामाजिक तथा पारिवारिक भविष्य को रेखांकित करते हैं। जीवनविषाक्त होता दिखाई पड़ रहा है। पश्चिम में सम्प्रदायों तथा जातियों की इसप्रकार की वैभिन्नता भी नहीं है और है तो भी ऎसी कट्टरता दिखाई नहीं देती।वहां पैदा होने वाले व्यक्ति को जीवन में दो-तीन शादी कर लेना मान्य है।हम अभी अर्घविकसित हैं। विकास का ढोंग करते हैं। भीतर बदले नहीं हैं।परम्पराओं और मान्यताओं की जकड़ से मुक्त भी नहीं हैं। फिर भी हम विकसितसमाजों के पीछे दिखना भी नहीं चाहते। विदेशों में उच्च शिक्षा का कारण सुखप्राप्ति है। स्वतंत्रता भी है और स्वावलम्बन भी। भारत में लड़कियों कोउच्च शिक्षा सुख प्राप्ति के लिए नहीं दी जाती, बल्कि इसलिए दी जाती है किखराब समय (वैधव्य या विवाह विच्छेद) की स्थिति में पराश्रित न रहे।नकारात्मक चिन्तन ही आधार होता है। तब समझौते का प्रश्न किसी के मन मेंउठता ही नहीं है। हम जब तक इस लायक हों कि यथार्थ को स्पष्ट समझ पाएं,हमारे यहां कुछ विकासशील कुण्ठाएं संस्कृति विरोधी कानून भी पास करवा लेतीहैं। एक कहावत है कि हम अपने दुख से उतने दुखी नहीं हैं, जितने कि पड़ोसीके सुख से।

मात्र कानून बना देना विकास नहीं है। अभी मन्दिर-मस्जिद
के झगड़ों से हम बाहर नहीं आए। आरक्षण ने जातियों के नाम पर अनेक विरोध केस्वर खड़े कर दिए। जब हमारी सन्तान हमारे साथ किसी जाति के विरोध मेंलड़ती है, हिंसक हो जाती है, तब क्या वह लड़का विरोधी जाति की लड़की कापत्नी रूप में सम्मान कर सकेगा। अथवा ऎसा होने पर जातियों के बीच नए संघर्षके बीज बोये जाएंगे? क्या समाज का यह दायित्व नहीं है कि यदि किसीसम्प्रदाय को वह स्वीकार नहीं करता, तो अपने बच्चों को भी शिक्षित करे?
क्या विरोधी समाज की लड़की का अपमान करके अपनी बहू के प्रति उत्तरदायित्वके बोध का सही परिचय दे रहे हैं? क्या यह पूरे समाज का अपमान नहीं है? आजजीवन एक दौड़ में पड़ गया है। एक होड़ में चल रहा है। स्पर्धा ने मूल्योंको समेट दिया है। नकल का एक दौर ऎसा चला है कि व्यक्ति की आंख खुद के जीवनके बजाए दूसरे पर टिकी होती है, जिसकी वह नकल करना चाहता है। जैसे किशिक्षित लड़कियां भी लड़कों की नकल करना चाहती हैं। अत: लड़कियों के गुणग्रहण ही नहीं करतीं। लड़का बन नहीं सकतीं। अत: यह आदमी की हवस का पहलाशिकार होती हैं। भले ही इस कारण ऊंचे पदों तक पहुंच भी जाए, किन्तु सुख नइनको मिलता, न ही इनके माता-पिता को। बस, विकास की धारा में बहते रहते हैं।

प्रश्नयह है कि यदि हम विकसित हो रहे हैं, शिक्षित हो रहे हैं, तो इसका लाभ
स्त्री को क्यों नहीं मिल रहा। शिक्षित व्यक्ति निपट स्वार्थी भी होता जा
रहा है और उसे नुकसान करना भी अधिक आता है। अनपढ़ औरतें कन्या भ्रूण हत्याके लिए बदनाम इसलिए हो गई कि उनको गर्भस्थ शिशु के लिंग की जानकारी उपलब्धनहीं थी। आंकड़े साक्षी हैं कि ऎसी हत्याओं में शिक्षित महिलाएं अधिक लिप्तहैं और चर्चा भी नहीं होती। ये हत्याएं इस बात का प्रमाण तो हैं ही किनारी आज भी स्वयं को लाचार और अत्याचारग्रस्त मानती है। अपनी कन्या को इसरूष के हवाले नहीं करना चाहती। पुरूष वर्ग का इससे अधिक अपमान हो भी क्यासकता है। अब अन्तरजातीय विवाह ने इस नासूर को नया रूप ही दिया है। लड़काअधिकांश मामलों में मां-बाप के साथ होकर लड़की को अकेला छोड़ देता है। तबउसके लिए मायके लौटने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। इसके लिए भी उसेअदालतों के और वकीलों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। यह आत्म-हत्याओं को बढ़ावा
देने वाला मार्ग तैयार हो रहा है। यह भी सच है कि व्यक्ति अपना किया ही
भोगता है।

समाज हर युग में एक-सा रहा है। शिक्षा बाहरी परिवेश हैभीतर की आत्मा की शिक्षा, उसका जागरण, परिष्कार आदि जब तक जीवन में नहीं
जुड़ेंगे, संस्कारवान मानव समाज का निर्माण संभव नहीं है।

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