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    • सूका सूका खेतडा पण नैणा मै बाढ ।


      घर मँ कोनी बाजरी ऊपर सूँ दो साढ ॥


      जद सूँ पाकी बाजरी काचर मोठ समेत ।


      दिन भर नापै चाव सूँ पटवारी जी खेत ॥


      फिर फिर आवै बादळी घिर घिर आवै मेह ।


      सर सर करती पून मँ थर थर कांपै देह ॥


      होगी सोळा साल री बेटी करै बणाव ।


      कद निपजैली टीबडी कद मांडूला ब्याव ॥


      टूटी फूटी झूँपडी बरसै गरजै गाज ।


      इण चौमासै रामजी दोराँ रहसी लाज ॥


      टाबर टीकर मोकळाँ करजै री भरमार ।


      राम रूखाळी राखजै थाँ सरणै घरबार ॥


      निरधनियाँ नै धन मिल्यो रोजणख्याँ नै राग ।


      राम बता कद जागसी परदेसी रा भाग ॥


      उगतो पिणघट ऊपराँ सुणतो मिठी बात ।


      गळी गुवाडी घूमतो चान्दो सारी रात ॥


      ना पिणघट ना बावडी ना कोयल ना छाँव ।


      तो भी चोखो सहर सूँ म्हारो आधो गांव ॥


      सांझ ढळ्याँ नित जांवता देखै सारो गांव ।


      पिरमा थारी लाडली पटवारी रै ठांव ॥


      पैली उठती गौरडी पाछै उठती भोर ।


      झांझर कै ही नीरती सगळा डांगर ढोर ॥


      छैल सहर सूँ बावडै खरचै धोबा धोब ।


      पडै गांव मै रात दिन पटवारी सा रोब ॥


      जद मन तरस्यो गांव नै जद जद हुयो अधीर ।


      दूहा रै मिस मांडदी परदेसी री पीर ॥


      प्रीत आपरी अचपळी घणी करै कुचमाद ।


      सुपना मै सामी रवै जाग्या आवै याद ॥


      पाती लिख रियो गांव नै अपरंच ओ समचार ।


      दुख पावुँ परदेस मँ जीवूँ हूँ मन मार ॥


      राग रंग नी आवडै कींकर उपजै तान ।


      घर मै कोनी बाजरी अर टूट्योडी छान ॥


      घर दे घर रूजगार दे घर घर री दे साख ।


      ना देवै तो सांवरा जीवण पाछो राख ॥


      बिन हरियाळी रूंखडा घरघूल्या सा ठांव ।


      ’राही’ दीखै दूर सूँ थारो आधो गांव ॥


      लेग्या तो हा गांव सूँ कंचन देही राज ।


      पाछी ल्याया सहर सूँ खांसी कब्जी खाज ॥


      गाय चराती छोरडयाँ जोबन सूँ अणजाण ।


      देख ओपरा जा लूकै कर जांटी री आण ।।


      जोध जुवानी बेलड्याँ मिलसी करयाँ बणाव ।


      आखडजै मत पावणा पगडंड्या रै गांव ॥


      के तडपासी बादळी के कोयल री कूक ।


      पैली ही सूँ काळजो हुयो पड्यो दो टूक ॥


      अजब पीर परदेस री म मर जीवै जीव ।


      घर मै तरसै गोरडी परदेसाँ मै पीव ।।


      ना आंचळ ना घूंघटो ना हीवडै मै लाज ।


      घिरसत पाळै गोरडी रोटी पोवै राज ॥


      घाटै रो घर दे दिये दुख दीजै अणचींत ।


      मतना दीजे सांवरा परदेसी री प्रीत ॥


      धान महाजन रै घराँ ढोर बिक्या बे दाम ।


      करज पुराणो बाप रो कीयाँ चुकै राम ॥


      बेटो तो परदेस मै घर बूढा मा बाप ।


      दोनो पीढी दो जघाँ दुख भोगै चुपचाप ॥


      ठाला बिन रूजगार कै ताना देता लोग ।


      भरी न अब तक गांव सूँ मनस्या बळण जोग ॥


      जद जासी परदेस तूँ हुसी जद बरबाद ।


      दरद दिसावर ई कडया रोज करैलो याद ॥


      कितरा ही दुहा लिखूँ अकथ रहीज्या भाव ।


      परदेसी रो दरद तो है गूंगै रो भाव ॥


      विजेंद्र शेखावत
      सिंहासन

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