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जीवन में ढलती खुशियों की शाम है बीवी
जो पढ़ी नहीं सिर्फ सुनी जाये वो कलाम है बीवी

सर चढ़ गयी तो फिर कुछ भी अपने बस में नहीं
ये जान के भी जो पी जाये वो जाम है बीवी

क्यों मारी पैर पे कुल्हाड़ी जेहन में उनके है अब
जो सोचते थे चक्कर काटने का इनाम है बीवी

अरेंज मर्डर हुआ हो या इश्क में खुद ही चढ़ गए सूली
जो सब को झेलनी, ऐसी उलझनों आम है बीवी

सजा तय है जो जुर्म किया हो न किया हो
रोयी नहीं की फिर क्या सबूत क्या इलज़ाम है बीवी

माँ की कहानियों में ही होती थी सावित्री, दमयंती
मगर अब शहरी चका-चौंध की गुलाम है बीवी

क्या करो, ओढो, पहनो ये बताने की जुर्रत किसको
पर क्या ये खर्चे मेरे पसीने का दाम है बीवी

माँ-बाप पीछे पड़े हैं कैसे समझाऊ उन्हें
बदलते दौर में किस बला का नाम है बीवी

कुंवारा हूँ सो कह लूं आज जो कुछ भी कहना है
कल तो लिखना ही है खुदा का पैगाम है बीवी





भगवान् का शुक्र है अभी तक कुंवारा हूँ .

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