यौवन के मद में अनियंत्रित, सागर में खो जाने को
आज चला था पैसो से मैं यौवन का सुख पाने को
दिल की धड़कन भी थिरक रही थी यौवन के मोहक बाजे पे
अरमानों के साथ मैं पंहुचा उस तड़ीता के दरवाजे पे
अंदर पंहुचा तो मानो हया ने भी मुँह फेर लिया
चारो तरफ से मुझको यूँ रुपसियों ने था घेर लिया
हर कोई अपने यौवन के श्रृंगार से सुसज्जित था
पर अब जाने क्यों मेरा मॅन थोडा सा लज्जित था
आहत होता था हृदय बहुत उन संबोधन के तीरों से
पर अभी भी मॅन था बंधा हुआ संवेगों की जंजीरों से
तभी एक रूपसी पर अटकी मेरी दृष्टि थी
लगता था मानो स्वयं वही सुन्दरता की सृष्टि थी
व्यग्र हुआ मॅन साथ में उसके स्वयं चरम सुख पाने को
उस कनकलता को लिए चला अपनी कामाग्नि बुझाने को
जून के उष्ण महीने में बसंती सी हो गयी थी रुत
कुछ ऐसे अपने तन को उसने मेरे समुख किया प्रस्तुत
खुला निमंत्रण था सपनो को आलिंगन में भरने का
पर नहीं समझ पा रहा था कारण अपने अंतस के डरने का
अंतस को अनदेखा कर के प्रथम स्पर्श किया तन को
उस मद से ज्यादा मद-मादित अब तक कुछ नहीं लगा मॅन को
खुद अंग ही इतने सुंदर थे लज्जा आ जाये गहनों को
पर सहसा सहम गया देख उस मृग-नयनी के नयनो को
आँखों में कोई चमक नहीं चेहरे पे कोई भाव नहीं
सपने कोई छीन गया जैसे जीने कोई चाह नहीं
प्रश्नों की श्रृंखल कड़ियों ने सारा मद तोड़ दिया पल में
व्याकुल था अंतस जानने को क्या है इसके हृदयातल में
उसे देख अवस्था में ऐसी जब रहा नहीं गया मुझसे
जो उबल रहा था अंतस में वो सब कुछ बोल दिया उससे
आँखे सूना चेहरा सूना क्यों सूना तेरा जीवन है
इच्छाओं के संसार में क्यों अब लगता नहीं तेरा मॅन है
सिर्फ तन का मूल्य दिया हूँ मैं, मॅन पर मेरा अधिकार नहीं
पर इतना तो बता ऐ कनकलता क्या तुझको मैं स्वीकार्य नहीं
हे कामप्रिया!,हे मृगनयनी! ऐसी क्या विवशता है तुझको
जो मॅन से मेरे साथ नहीं फिर तन क्यों सौप दिया मुझको
शांत भाव से बोली वो यहाँ मॅन को कौन समझता है
एक लड़की के लिए गरीबी ही उसकी सबसे बड़ी विवशता है
इतना कह के फिर शांत हो गयी कुछ समझ नहीं आया मुझको
प्रश्नों की श्रृंखल कड़ियों से फिर मैंने झक-झोर दिया उसको
लड़ना ही जीवन है चाहे मुश्किल कितनी भी ज्यादा हो
फिर नारी हो के क्यों तोड़ दिया तुमने अपनी मर्यादा को
कमी नहीं दुनिया में काम की पैसे इज्जत से कमाने को
फिर क्यों बेच दिया खुद को बस अपनी क्षुधा मिटाने को ?
तड़प उठी वो मेरे ऐसे प्रश्नों के आघातों से
मुझसे बोली क्या समझाना चाहते हो इन बातों से
शौक नहीं था वेश्या बन बाज़ारों में बिक जाने का
अपने ही हाथों से खुद अपना आस्तित्व मिटाने का
पर आँखों के सारे सपने एक रोज बह गए पानी में
जब माँ-बाप,घर-आँगन सब खो गए सुनामी में
फिर एक ही रात में बदल गयी मेरी दुनिया की तस्वीर यहाँ
कठपुतली बना के बहुत नचाई मुझको मेरी तक़दीर यहाँ
दिन अच्छे हो जाते हैं राते भी अच्छी लगती हैं
भरे पेट को सिद्धांत की हर बातें अच्छी लगती हैं
पर मई-जून की गर्मी से जब देह झुलसने लगती है
रोटी के टुकड़े खोज रही आँखे कुछ थकने लगती हैं
भूख की आग में तड़प-तड़प मुश्किल से दिन कट पाते हैं
अपनी बेबसी में घुट-घुट कर सपनों को जलाती रातें है
जब नीली छत के सिवा सर पर कोई और छत नहीं होती है
कपडो के छेदों से झाँक रही मजबूरी खुद पे रोती है
गिद्धदृष्टि से देहांश देखता जब कोई चीर-सुराखों से
तब मॅन छलनी हो जाता है तीर विष बुझे लाखों से
जब इन हालातों से लड़ लड़ कर जवानी थकने लगती है
तब मर्यादा और सम्मान की ये बातें बेमानी लगने लगतीं है
लोगो ने जाने कितनी बार मन को निर्वस्त्र कर डाला था
पर फिर भी किसी तरह मैंने अपना तन संभाला था
पर एक दिन कुचल गयी कली कुछ मदमाते क़दमों से
कुछ और नहीं अब बाकी था इन किस्मत के पन्नों में
खुद को ख़त्म कर लेने का निश्चय कर लिया मेरे मॅन ने
पर लाख चाहने पर भी दिल का साथ नहीं दिया हिम्मत ने
पर जीने का मतलब मेरे लिए हर मोड़ पर एक समझौता था
फिर इस जगह से ज्यादा गया गुजरा मेरे लिए क्या हो सकता था
इतना गिर गयी हूँ मैं कैसे ये सवाल हमेशा डसता था
लेकिन मेरे पास भी इसके सिवा अब और कहाँ कोई रस्ता था
उस वक़्त बहुत मैं रोई थी हद से ज्यादा चिल्लाई थी
दूसरों के हाथ आस्तित्वहीन हा जब खुद को मैं पाई थी
पर रो-रो के सारे आंसू एक रोज़ बहा डाला मैंने
हर अरमान का गला घोंट कफ़न ओढा डाला मैंने
पर अब पेट भर जाने पर भी जब नीद नहीं आती रातों को
नहीं सँभाल पता है ये दिल तब इन बिखरे जज्बातों को
क्यों नहीं सजा सकती हूँ मैं दुल्हन बन किसी आँगन को
क्यों प्रेयसी बनने का अधिकार नहीं मिला मुझ अभागन को
काश कि मैं भी किसी को प्राणों से प्यारा कह पाती
काश कि मैं भी किसी के हृदयातल में रह पाती
काश कि मेरे आँचल में भी एक अंश मेरा अपना होता
ममता से पागल हो जाती एक बार जो मुझको माँ कहता
इतना कहते कहते ही उसकी आँखे भर आई थी
मैं भी था खामोश वहाँ बस एक उदासी छाई थी
फिर मुझमे हिम्मत ही नहीं थी उससे कुछ कह पाने को
धीमे क़दमों से लौट गया वापस गंतव्य पे जाने को
सोचता रहा ये रास्ते भर होके मानववृत्ति के अधीन
वो चरित्रहीन थी या फिर दुनिया ही है चरित्रहीन
सभी मित्रों से निवेदन है कृपया इसे असभ्य न समझे ये आज के समाज के इंसान की असलियत है
कु. विजेंद्र शेखावत
ठि. सिंहासन
आज चला था पैसो से मैं यौवन का सुख पाने को
दिल की धड़कन भी थिरक रही थी यौवन के मोहक बाजे पे
अरमानों के साथ मैं पंहुचा उस तड़ीता के दरवाजे पे
अंदर पंहुचा तो मानो हया ने भी मुँह फेर लिया
चारो तरफ से मुझको यूँ रुपसियों ने था घेर लिया
हर कोई अपने यौवन के श्रृंगार से सुसज्जित था
पर अब जाने क्यों मेरा मॅन थोडा सा लज्जित था
आहत होता था हृदय बहुत उन संबोधन के तीरों से
पर अभी भी मॅन था बंधा हुआ संवेगों की जंजीरों से
तभी एक रूपसी पर अटकी मेरी दृष्टि थी
लगता था मानो स्वयं वही सुन्दरता की सृष्टि थी
व्यग्र हुआ मॅन साथ में उसके स्वयं चरम सुख पाने को
उस कनकलता को लिए चला अपनी कामाग्नि बुझाने को
जून के उष्ण महीने में बसंती सी हो गयी थी रुत
कुछ ऐसे अपने तन को उसने मेरे समुख किया प्रस्तुत
खुला निमंत्रण था सपनो को आलिंगन में भरने का
पर नहीं समझ पा रहा था कारण अपने अंतस के डरने का
अंतस को अनदेखा कर के प्रथम स्पर्श किया तन को
उस मद से ज्यादा मद-मादित अब तक कुछ नहीं लगा मॅन को
खुद अंग ही इतने सुंदर थे लज्जा आ जाये गहनों को
पर सहसा सहम गया देख उस मृग-नयनी के नयनो को
आँखों में कोई चमक नहीं चेहरे पे कोई भाव नहीं
सपने कोई छीन गया जैसे जीने कोई चाह नहीं
प्रश्नों की श्रृंखल कड़ियों ने सारा मद तोड़ दिया पल में
व्याकुल था अंतस जानने को क्या है इसके हृदयातल में
उसे देख अवस्था में ऐसी जब रहा नहीं गया मुझसे
जो उबल रहा था अंतस में वो सब कुछ बोल दिया उससे
आँखे सूना चेहरा सूना क्यों सूना तेरा जीवन है
इच्छाओं के संसार में क्यों अब लगता नहीं तेरा मॅन है
सिर्फ तन का मूल्य दिया हूँ मैं, मॅन पर मेरा अधिकार नहीं
पर इतना तो बता ऐ कनकलता क्या तुझको मैं स्वीकार्य नहीं
हे कामप्रिया!,हे मृगनयनी! ऐसी क्या विवशता है तुझको
जो मॅन से मेरे साथ नहीं फिर तन क्यों सौप दिया मुझको
शांत भाव से बोली वो यहाँ मॅन को कौन समझता है
एक लड़की के लिए गरीबी ही उसकी सबसे बड़ी विवशता है
इतना कह के फिर शांत हो गयी कुछ समझ नहीं आया मुझको
प्रश्नों की श्रृंखल कड़ियों से फिर मैंने झक-झोर दिया उसको
लड़ना ही जीवन है चाहे मुश्किल कितनी भी ज्यादा हो
फिर नारी हो के क्यों तोड़ दिया तुमने अपनी मर्यादा को
कमी नहीं दुनिया में काम की पैसे इज्जत से कमाने को
फिर क्यों बेच दिया खुद को बस अपनी क्षुधा मिटाने को ?
तड़प उठी वो मेरे ऐसे प्रश्नों के आघातों से
मुझसे बोली क्या समझाना चाहते हो इन बातों से
शौक नहीं था वेश्या बन बाज़ारों में बिक जाने का
अपने ही हाथों से खुद अपना आस्तित्व मिटाने का
पर आँखों के सारे सपने एक रोज बह गए पानी में
जब माँ-बाप,घर-आँगन सब खो गए सुनामी में
फिर एक ही रात में बदल गयी मेरी दुनिया की तस्वीर यहाँ
कठपुतली बना के बहुत नचाई मुझको मेरी तक़दीर यहाँ
दिन अच्छे हो जाते हैं राते भी अच्छी लगती हैं
भरे पेट को सिद्धांत की हर बातें अच्छी लगती हैं
पर मई-जून की गर्मी से जब देह झुलसने लगती है
रोटी के टुकड़े खोज रही आँखे कुछ थकने लगती हैं
भूख की आग में तड़प-तड़प मुश्किल से दिन कट पाते हैं
अपनी बेबसी में घुट-घुट कर सपनों को जलाती रातें है
जब नीली छत के सिवा सर पर कोई और छत नहीं होती है
कपडो के छेदों से झाँक रही मजबूरी खुद पे रोती है
गिद्धदृष्टि से देहांश देखता जब कोई चीर-सुराखों से
तब मॅन छलनी हो जाता है तीर विष बुझे लाखों से
जब इन हालातों से लड़ लड़ कर जवानी थकने लगती है
तब मर्यादा और सम्मान की ये बातें बेमानी लगने लगतीं है
लोगो ने जाने कितनी बार मन को निर्वस्त्र कर डाला था
पर फिर भी किसी तरह मैंने अपना तन संभाला था
पर एक दिन कुचल गयी कली कुछ मदमाते क़दमों से
कुछ और नहीं अब बाकी था इन किस्मत के पन्नों में
खुद को ख़त्म कर लेने का निश्चय कर लिया मेरे मॅन ने
पर लाख चाहने पर भी दिल का साथ नहीं दिया हिम्मत ने
पर जीने का मतलब मेरे लिए हर मोड़ पर एक समझौता था
फिर इस जगह से ज्यादा गया गुजरा मेरे लिए क्या हो सकता था
इतना गिर गयी हूँ मैं कैसे ये सवाल हमेशा डसता था
लेकिन मेरे पास भी इसके सिवा अब और कहाँ कोई रस्ता था
उस वक़्त बहुत मैं रोई थी हद से ज्यादा चिल्लाई थी
दूसरों के हाथ आस्तित्वहीन हा जब खुद को मैं पाई थी
पर रो-रो के सारे आंसू एक रोज़ बहा डाला मैंने
हर अरमान का गला घोंट कफ़न ओढा डाला मैंने
पर अब पेट भर जाने पर भी जब नीद नहीं आती रातों को
नहीं सँभाल पता है ये दिल तब इन बिखरे जज्बातों को
क्यों नहीं सजा सकती हूँ मैं दुल्हन बन किसी आँगन को
क्यों प्रेयसी बनने का अधिकार नहीं मिला मुझ अभागन को
काश कि मैं भी किसी को प्राणों से प्यारा कह पाती
काश कि मैं भी किसी के हृदयातल में रह पाती
काश कि मेरे आँचल में भी एक अंश मेरा अपना होता
ममता से पागल हो जाती एक बार जो मुझको माँ कहता
इतना कहते कहते ही उसकी आँखे भर आई थी
मैं भी था खामोश वहाँ बस एक उदासी छाई थी
फिर मुझमे हिम्मत ही नहीं थी उससे कुछ कह पाने को
धीमे क़दमों से लौट गया वापस गंतव्य पे जाने को
सोचता रहा ये रास्ते भर होके मानववृत्ति के अधीन
वो चरित्रहीन थी या फिर दुनिया ही है चरित्रहीन
सभी मित्रों से निवेदन है कृपया इसे असभ्य न समझे ये आज के समाज के इंसान की असलियत है
कु. विजेंद्र शेखावत
ठि. सिंहासन
21 December 2011 at 17:28
It is very skillful poetic describtion of real feelings.